क्या महत्वपूर्ण बात है:यदि आपको लगता है कि सरकारी अस्पताल में डॉक्टर मरीज को अच्छे से नहीं देखते हैं ? और आपको लगता है कि सरकारी अस्पताल में डॉक्टर प्यार से बातें नहीं करते है ! जब आप इलाज के दौरान सरकारी अस्पताल की तुलना प्राइवेट अस्पताल या प्राइवेट डॉक्टर से करते हैं, तो आपको सरकारी मरीज और प्राइवेट मरीजों के आचरण व विश्वास की तुलना भी करनी चाहिये। जब आप सरकारी अस्पताल में एक रुपये का पर्चा बनवाने जाते है, जिसे काफी लोग अपनी तौहीन समझते हैं। तभी आप मान लेते है, कि यहाँ ठीक वीक नहीं होना है। कुछ मुफ्त की जांचे और कुछ सरकारी दवायें मिल जायेंगी। नहीं ठीक होगा तो कहीं प्राइवेट दिखायेंगे। प्राइवेट अस्पताल में तीन से पांच सौ रूपये का पर्चा बनते ही आप का ह्रदय श्रद्धा भाव से परिपूर्ण हो जाता है। मरीज और परिजन सोचते है कि पैसा जरुर लग रहा है लेकिन यहॉ ठीक हो जायेंगे | सरकारी अस्पताल में मरीज सस्ता पर्चा टेढा मेढा कर के डॉक्टर के कमरे में बगैर पूछे ही घुस जाता है और जल्दी से देखने का दबाब बनाने लगता है| जबकि यही मरीज प्राइवेट अस्पताल में जहाँ महंगा पर्चा बनता है, वहाँ बड़ी सावधानी और श्रद्धा भाव से वार्डबॉय (चतुर्थ श्रेणी का कर्मी) से करीब करीब गिड़गिड़ाते हुये अंदाज में पहले पूछता हैं, फिर अपनी बारी की प्रतीक्षा में चुपचाप घंटों बैठे रहता हैं, इस दौरान कोई नेता, अभिनेता, पत्रकार की कोई सिफारिस उसे याद नहीं आती है। फिर अपने क्रम पर अंदर जाते वक़्त मन ही मन, अंदर जाके क्या क्या क्या बताना है तैयार कर लेता है ताकि कोई चीज छूट न जाय, क्योंकि इसके बाद आज पुनः घुसने को शायद ही मिले । सरकारी अस्पताल में आप फ्री की दवायें और फ्री की जॉचें कराने के लिये डॉक्टर को घेर कर विभिन्न प्रकार का दबाव बनाते है और तरह तरह की बातें कहने लगते हैं। डॉक्टर को नौकर की तरह आदेश देने लगते हैं, मुंह में बदबूदार गुटखा और हाथ में बजता मोबाइल फोन लिये हुए डॉक्टर को सभ्यता और संस्कार का पाठ सिखाने लगता हैं। डॉक्टर की किसी भी प्रतिक्रिया पर पत्रकार और नेताओं का जमावड़ा इकट्ठा कर लेता है। यहाँ तक कि राजकीय चिकित्सक से गाली गलौज और मारने पीटने में भी कोई परहेज नहीं करता। प्राइवेट अस्पताल का पर्चा सालों साल सम्भाल के रखते है, जबकि सरकारी अस्पताल का पर्चा चार दिन भी चल जाये तो बहुत बडा एहसान। सरकारी अस्पताल में किसी बजह से अगर अपने ऊपर दो पैसे भी खर्च करने पड़े, तो मा मुख्यमंत्री जी के पोर्टल से लेकर तहसील दिवस तक बेपनाह शिकायतें। प्राइवेट अस्पताल में खर्चा तो सामान्य सी बात है। जरूरत से ज्यादा थके सरकारी डॉक्टर को हर हाल में गालियॉ खाते हुये और डर के साये भी प्रेम और श्रद्धा भाव से मुस्करा के काम करते हुए अक्सर देखा जाता है। वर्तमान समय में राजकीय चिकित्सक की स्थिति धोबी, नाई, कहार से भी बदतर है। आये दिन स्वयं दुर्व्यवस्था के कारक लोग हमें सार्वजनिक रूप से नसीहत देते हैं। मरीज देखने के साथ हमें मेला डयूटी, रैली डयूटी, आकस्मिक डयूटी, बाढ़, भूकम्प और दुर्घटनाग्रस्त क्षेत्र की डयूटी के साथ साथ पोस्टमार्टम की डयूटी आदि आदि करनी पड़ती है। "सुख में सुमिरन कोऊ न करें, दुःख में करें सब याद। फिर भी मेरे कुछ कहने पर करते हैं विवाद।।'' फिर भी हम नकारा हैं! डा० आशुतोष कुमार दुबे चिकित्सा अधीक्षक डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी (सिविल) हॉस्पिटल लखनऊ


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मुत्यु लोक का सच:*आचार्य रजनीश* (१) जब मेरी मृत्यु होगी तो आप मेरे रिश्तेदारों से मिलने आएंगे और मुझे पता भी नहीं चलेगा, तो अभी आ जाओ ना मुझ से मिलने। (२) जब मेरी मृत्यु होगी, तो आप मेरे सारे गुनाह माफ कर देंगे, जिसका मुझे पता भी नहीं चलेगा, तो आज ही माफ कर दो ना। (३) जब मेरी मृत्यु होगी, तो आप मेरी कद्र करेंगे और मेरे बारे में अच्छी बातें कहेंगे, जिसे मैं नहीं सुन सकूँगा, तो अभी कहे दो ना। (४) जब मेरी मृत्यु होगी, तो आपको लगेगा कि इस इन्सान के साथ और वक़्त बिताया होता तो अच्छा होता, तो आज ही आओ ना। इसीलिए कहता हूं कि इन्तजार मत करो, इन्तजार करने में कभी कभी बहुत देर हो जाती है। इस लिये मिलते रहो, माफ कर दो, या माफी माँग लो। *मन "ख्वाईशों" मे अटका रहा* *और* *जिन्दगी हमें "जी "कर चली गई.*
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